
सुफ़ैद और सियाह में
रंगीं ये गोल दुनिया
साँकलों से जकड़ी
बक्से सी बन्द दुनिया
क्यों नहीं बगावत
ये रंग छेड़ देते?
दम घोटती रही थी
सख्ती से जब ये दुनिया
निराकार ईश्वर को
सच मानती है दुनिया
मानव की वेदना को
इन्कारती है दुनिया
प्रेम ही तो है ये
क्यों समझते नहीं हो
इन को भी अपना लो
रंगों की भी है दुनिया
