पहाड़ों में आवाज़ें महफ़ूज़ रहती हैं
और आवाज़ों के साथ शब्द भी
जैसे कविताएँ-कहानियाँ किताबों में महफ़ूज़ रहती हैं|
पहाड़ों, किताबों और दिल में ज़्यादा अंतर कहाँ है?
पहाड़ मेरे लिये प्रेमी भी हैं
जिनकी ख़ूबसूरती पर रीझ-रीझ कर
न जाने कितने पन्ने भर डाले
पर न जाने ये कैसा खुमार है
जो उतरता ही नहीं
मेरे भेदी हैं ये पहाड़
लगातार टकटकी लगाए
घंटों आँखों से बातें किया करती हूँ
शिकायतें, अधूरे सपने, ख़्वाहिशें
पर मजाल है, इन्होंने चुप्पी तोड़ी हो!
जब कहने को सब होते हुए भी
मेरे पास अपना कुछ नहीं होता
और मैं उनके चुप और अपाहिज होने पर
ताने मार रही होती हूँ
तभी पहाड़ों से निकलकर
पेड़ों से गुज़रता एक हवा का झोंका
तपाक से मुझसे आ लिपटता है!
