क्या मुझमें भी भार है

तुम्हारी ऊबड़-खाबड़ चट्टानों पर गिर-फिसल कर, लांग-फलांग कर रोज मन के सहारे सबसे ऊँची चट्टान पर सूरज को हाथ हिलाकर अलविदा कहने जाती हूँ | सूरज डूबता है और मैं उदास मन से पीछे मुड़ कर देखती हूँ| देखती हूँ और देखती रह जाती हूँ| तुम्हारा वो विशालकाय रूप जिसपर मस्ती में गिरकर, फिसलकर, लांग-फलांग कर सबसे ऊँची वाली चट्टान पर चढ़ गई; नीचे से तो तुम पा जाने योग्य ही लगे पर तुम्हारे शीर्ष पर से दुनिया कितनी छोटी दिखती है| अब नीचे उतरूँ तो कैसे? तुम्हारी बड़ी बड़ी ऊबड़ खाबड़ चट्टानें जो हैं | कहीं पैर रखते ही कोई चट्टान ढह गई तो?
सोचती हूँ, तुम हो इतने बिखरे बिखरे फिर भी इतने दृढ! कभी-कभार एकाद चट्टान ही लुढ़कती है| बाकी ऐसी चिपकी हैं जैसे गोंद से चिपकाई गई हों| पर कोई गोंद तो है नहीं, बस एक दुसरे का सहारा लेकर खड़े हैं तुम्हारे पत्थर| टूटे-टूटे होकर भी इतने सख्त? फिर याद आते हैं वो मुहावरे ‘पहाड़ जैसा’ ‘पहाड़ खोदना’ और सोचती हूँ की सब तुम्हारे इस पहाड़ जैसे अटल अस्तित्वा को तो देखते हैं पर मेरी ही तरह इस टूटी-टूटी छोटी-छोटी चट्टानों से बने महाकाय स्वरुप को कितने लोग देखते होंगे? जो सारी टूटन समेटे हुए भी निर्विकार खड़ा है, निर्मोही सा, सुदृढ़|
जैसे छिड़के हुए बीजों से उपजे हुए इन पेड़ पौधों को देख कर लगा, चट्टान पर तो उगते नहीं होंगे| घर्षण से बनी भुरभुरी कोमल मिट्टी भी तो है तुम में| प्रेरणा पाने की कोशिश करती हूँ तुमसे| तुम्हारी चोटी पर योद्धा के आकार की चट्टान इस गौरव का नाद करती दिखती है| तुम्हारी छोटी चट्टानों में भी भार है इस लिए लदी हैं एक दुसरे पर| क्या कभी तूमने इनके भार का आभास नहीं किया? न तुम अन्दर से साबुत है ना बाहर से पर तुम्हारे व्यक्तित्वा में भार है| तुम पहाड़ हो सबसे मजबूत, सबके लिए एक प्रेरणा|
एक बात बताओ, फिर मैं क्यों भीतर से टूटी हो कर बाहर से हलकी हुई जा रही हूँ? क्या सब टूट कर मिट्टी सा भुरभुरा हो गया है? या भार मुझमें भी है बस नज़र नहीं आ रहा है?क्या मुझमें भी भार है?