अर्धविराम के आगे

उस अर्धविराम के पास बैठा मेरा जीवन,
व्याकुल सा,
कभी मेरा चहरा,
कभी कलम की नोक तकता है
मैं, न जाने कब से,
उसे, एक सोच की मुद्रा से छलती हूँ
पर सच तो ये है कि
उस खड़े अर्धविराम के आगे
मुझे कुछ नहीं आता
मुझे कुछ भी नहीं आता|

घनिष्ठों का समझाना मुझे असहज सा करता है
आँखें भींच कर,
चिल्लाकर
उनसे दूर भागकर
कहीं कोने में छिपकर
आँसुओं का मटका छलकाती हूँ
लगा कर दंभ की झिल्ली
दम घोट कर बहाव का
जैसे हुआ ही नहीं हो कुछ
वापस भी आती हूँ
कलम वापस निकालकर
पन्ने पे रखती हूँ

उस अर्धविराम के पास बैठा मेरा जीवन,
व्याकुल सा,
कभी मेरा चहरा,
कभी कलम की नोक तकता है
मैं, न जाने कब से,
उसे, एक सोच की मुद्रा से छलती हूँ
पर सच तो ये है कि उस खड़े अर्धविराम के आगे
मुझे कुछ नहीं आता
मुझे कुछ भी नहीं आता|

– उदीषा तिवारी (फ़्रेजा)